मंगलवार, 16 जून 2015

धर्म परिवर्तन क्यों?

धार्मिक एकता देश की शक्ति है। 
भारत एक बहुधर्मी लोकतांत्रिक देश है। इन धर्मों में वर्ग या व्यवस्था विभाजन ऐतिहासिक है। हिंदुओं में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र। मुस्लिम समुदाय में शिया और सुन्नी। ईसाइयों में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट। इन सभी धर्मों वैश्विक और क्षेत्रिय स्तर पर एक-दूसरे से सर्वोच्च बनने की होड़ मची हुई है। उपर उठने की होड़ में यह एक-दूसरे के धर्म की अलोचनाएं करते हैं व धार्मिक उलेमाओं पंडितों को नीचता का भाव दिखाते है। यह भी क्या करें? सबको अपना धर्म अच्छा लगता है, लेकिन मजबूत धर्म व सम्प्रदाय के लोग तथाकथित कमजोर धर्म को दबाने की कोशिश करते हैं व उन्हें अपना विकास करने के लिए रोकते हैं। भारतीय परिवेश में समय-समय पर लोग धर्म परिवर्तन करते रहे हैं।

मुगलों के शासन काल में मुस्लिम समुदाय के लोगों को कर नहीं देना पड़ता था इसलिए हिंदू वर्ण व्यवस्था के अनुसार निम्नवर्गीय हिंदू थे उन्होंने स्वेच्छा से इस्लाम कबूल कर लिया। और करें भी क्यों न? हिंदू व्यवस्था में निम्न समुदाय वालों को इंसान नहीं समझा जाता था, गांव से बाहर रहना पड़ता था, मुगल हुकुमत और मौसम की मार झेल रहे गरीब किसान कब तक खाने को मोहताज होते, ऐसी परिस्थितियों में धर्म परिवर्तन कर लिया कोई अपराध नहीं है।

भारत के 85 प्रतिशत मुसलमान पिछड़े वर्ग से आते हैं, जो कि हिंदू से मुसलमान बनें लेकिन व्यवसाय वहीं रहा जैसे अंसारी, कुरैशी, सैफी, मंसूरी, शक्का, सलमानी, उस्मानी, घोषी आदि पसमांदा कहलाये, लेकिन अपने विकास के लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं। शायद यह ठीक भी था क्योंकि तत्कालिक समय में निम्न जातियों की जो दुर्दशा थी उनके पास धर्म परिवर्तन के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था। यह इसलिए भी ठीक नहीं था कि कोई धर्म नहीं कहता है कि किसी की बहु-बेटी पर नजरे गड़ाओ, किसी भी प्राणी पर हथियार उठायो, घरो को लूटो-बर्बाद करों। तत्कालिक समय में हिंदुओं के सभी उच्च वर्गों में ये कुरीतियां तथा विचार विद्यमान थे।

ऐसा नहीं है कि धर्म परिवर्तन जैसे विचार स्वतंत्र भारत में समाप्त हो गए। स्वतंत्र में ऐसे विचार और ताजी से बढ़ें और जिसका सहयोग हमारे नेताओं भी किया। वे भले ही सामाजिक रूप से कुछ भी बोले लेकिन धर्मों के प्रति रूढ़ीवादिता बनीं रहीं। इंदिरा गांधी ने जब प. जवाहर लाल नेहरू के सामने फिरोज के शादी का प्रस्ताव रखा तो नेहरू ने इसलिए मना कर दिया कि वह मुस्लमान हैं, महात्मा गांधी को जब यह बात पता चली तो उन्हें फिरोज को अपना नाम दिया और फिर नेहरू को मजबूरी में मानना पड़ा। तब जाकर नेहरू ने इंदिरा गांधी के साथ फिरोज गांधी का विवाह हुआ।  डा. बाबासाहेब भीम राव आंबेडकर ने भी हिंदू धर्म में होने वाले अंधविश्वास और कुरीतियों से प्रभावित होकर अपने हजारों समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म को अपनाया।

वर्तमान समय में धार्मिक संस्थाएं अपना धर्म अपनाने के लिए लोगों विभिन्न तरह के प्रलोभन व प्रोत्साहित कर रहे हैं। साथ ही शुरूआत में आर्थिक सहायता भी प्रदान करते है। गरीबी,शोषण और आर्थिक मंदी के व जीवन स्तर में सुधार करने के कारण भी लोग न चाहते हुए भी धर्म परिवर्तन कर रहे हैं। हाल में भी लव जिहाद और घर वापसी जैसे विचारों का उदभव हुआ है। दोनों ही तरह के विचार और समस्याएं लोगों के बीच में तेजी से उभर कर आई हैं। धार्मिक संस्थाओं व संगठन आरोप लग रहे हैं। धार्मिक संस्थाएं लोगों से जबरन धर्म परिवर्तन करवा रही हैं। धार्मक संगठन पूरे भारत में लव जिहाद और घर वापसी की मुहिम चला रहै हैं। ऐसे में प्यार-मोहब्बत करने वालों के सामने समस्या आ रही हैं। प्रेमी जोड़े इनके शिंकजे में फंसते जा रहे हैं। शादी के बाद धर्म परिवर्तन और परिवार, समाजृ के अंधविश्वास और रूढ़िवादिता के कारण आपसी सहयोग और हिम्मत हार जाते हैं। परिवार वाले अपने-अपने धर्मों की वकालत करते हैं और कहते हैं कि अगर शादी करनी है तो एक त्यागो तथा दूसरे को अपनाओं अन्यथा जहर खाओ मर जाओं। जबकि हम सब एक धर्म निरपेक्ष भारत रह रहे हैं । जहां सभी धर्मों को बराबरी का दर्जा मिला हुआ है, लेकिन धार्मिक उन्माद में बहकर धार्मिक संस्थाएं सर्वोच्च बनने की कोशिश में अन्य धर्मों का अपमान करता जा रहा हैं।

मुहब्बत ने मुझे नास्तिक बना दिया है,
अब मुझे इस्लाम की जरूरत नहीं,
मेरे जिस्म की हर नस सूत बन गई है,
मुझे ब्राह्मण के जनेऊ की जरूरत नहीं है।

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

धर्म और राजनीति

जिस देश में अनेक धर्म और सम्प्रदाय हो, वहां उनके बीच टकराव/मतभेद होना कोई आश्चर्य की बात नही है। परन्तु ऐसा भी नही है कि एक धर्म वाले देशों में विवाद उत्पन्न नही होता। एक धर्म वाले देशों में भी टकराव होना भी कोई नई बात नहीं है। पाकिस्तान में शिया-सुन्नी और अहमदिया, आयरलैंड में कैथोलिक और प्रोंटेस्टो के मध्य,  ईरान-इराक का भी शिया-सुन्नी के मध्य टकराव व विवाद होते ही रहते हैं। अगर भारत जैसे बहुधर्मी देश में समुदाय के मध्य टकराव होता तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नही हैं। भारत में कई धर्म है,लेकिन टकराव हिन्दू- मुस्लिम के बीच ही होता है। मुस्लिम-हिन्दू के बीच यह टकराव मुगल काल में शोषण और कर(टैक्स) के कारण हुआ। परन्तु ब्रिटिश भारत की फूड डालो और राज करो की नीति ने इन टकरावों को ओर भी निर्दयी बना दिया। 

भारतीय परिषद् 1909 के अधिनियम (मार्ले-मिन्टो सुधार अधिनियम) हिंदू-मुस्लिम वोट बैंक विभाजन की राजनीति थी। हिंदू-मुस्लिम संगठन एक जुट होने के बजाय आपस में ही टकराव करने लगे। कांग्रेस एक राष्ट्रवादी पार्टी बनी जबकि भाजपा एक हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी हैं। राम जन्म भूमि या बाबरी मस्जिद विध्वंस के समर्थन में भाजपा और कांग्रेस अपने को सही साबित करते हैं। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के कारण ही 1992-93 में मुंबई मे दंगे हुए जिसमें 900 लोग मारे गए। लगभग सभी राजनीतिक दलों पर एक सामान्य आरोप है कि प्रतिद्वंदी दलों को हराने के लिए वोट बैंक की राजनीति का खेलते हैं। जिसका अर्थ एक खास समुदाय के लोगो का वोट पाने का एकमात्र उद्देश्य है। इसलिए किसी भी मुद्दों को राजनैतिक समर्थन देते हैं। शाहबानो मामले में जहां कांग्रेस को समर्थक माना गया वही गोधरा कांड में भाजपा को दंगा करवाने में लिप्त माना जाता है। कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिसे सरकार सदैव के लिए बनाए रखना चाहती हैं ताकि धार्मिक राजनीति को बनाए रखे और लोगो के बीच दूरियां बना अपनी नजदीकियों को कायम रख सकें।

आज भारत में कई धार्मिक संगठन हैं। ऐसे कई धार्मिक संगठन भी है जो किसी नकिसी राजनीतिक दलों से जुड़ा हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, श्री राम सेना, बजरंग दल,जमात-ए-इस्लामी,जमात-ए-उलेमा आदि राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक धार्मिक संगठन हैं। इनके अलावा क्षेत्रीय स्तर पर भी कई धार्मिक राजनीतिक संगठन हैं। भारतीय राजनीति में अपने दल के समर्थन तथा अपने दलों में शामिल होने के लिए नए-नए हथकंडे अपनाते हैं। लेकिन अफसोस उस समय होता जब नसमझ लोगों के साथ-साथ एक पढ़ा-लिखा और समझदार तबका भी इस धार्मिक राजनीति में फंस जाते है। समाजिक हित के बजाय स्वहित तथा धर्महित की राह पर चलते हैं जोकि स्वार्थ से भी बढ़कर हैं। जिससे गैर धार्मिक व्यक्ति या समुदाय के मध्य टकराव उत्पन्न हो जाते हैं। और यें टकराव कई बार राजनीतिक व सामाजिक हिंसा या दंगों के रूप में उभर कर सामने आता हैं जिसमें का आम नगरिक ही शिकार होते हैं।

साम्प्रदायिक टकराव से समय-समय पर भारत ग्रस्त हुआ है। भारत तथा पाकिस्तान का धर्म के आधार पर बंटवारा हुआ जिसके कारण लाखों अल्पसंख्यकों ने पलायन किया। पलायन के साथ-साथ लोगों के बीच दंगे भी हुए। यह संघर्ष हिंदू राष्ट्रवाद बनाम इस्लामी कट्टरवाद और इस्लामवाद की होड़ की विचारधारा से उपजा हैं। ये विचार हिंदू और मुस्लिम समुदाय के कुछ भागों  में प्रचलित है। विभाजन के कारण 80 लाख लोगों को अपना घर छोड़कर सीमा पार जाना पड़ा तथा विभाजन की हिंसा में तकरीबन 5-10 लाख लोगों ने जान गंवाई। स्वतंत्रता के बाद भी कई बड़े साम्प्रदायिक संघर्ष हुए। 1984 के सिख विरोधी दंगे जिसके अंतर्गत भारतीय सेना भिंडरावाला के खिलाफ हरमिंदर साहिब गुरूद्वारा में घुसकर गोलीबारी की। इसके विरोध में 31 अक्टूबर 1984  को इंदिरा गांधी की दो सिखों ने हत्या कर दी गई, जिसका भुगतान लगभग 3000 सिखों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ा। अन्य घटनाओं में अयोध्या विवाद के रूप में बाबरी मस्जिद विध्वंस। जिसके फैसले में लिब्राहम आयोग ने भाजपा के सभी वरिष्ठ नेता तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगाया है। 2002 के गोधरा कांड से  पनपने वाला गुजरात दंगे जिसमें 1044 लोग मारे गए। मरने वालों में अधिकत्तर मुसलमान थे। हालांकि दोनो ही सम्प्रदाय के लोग दंगे का शिकार हुए थे।
कभी-कभी आतंकवादी गतिविधियों को भी साम्प्रदायिक दंगो का नाम भी दिया जाता हैं। जिससे साम्प्रदायिक दंगो को बढ़ाने में सहायता मिलती हैं। आतंकवादी गतिविधियां तथा साम्प्रदायिक दंगो में गहरा सम्बन्ध देखने को मिलता हैं क्योंकि कोई आतंकवादी गतिविधियां उस समय सक्रिय होती हैं जब दो समुदाय के मध्य टकराव उत्पन्न होने लगता हैं। अगर हम इसके विपरीत देखे तो आतंकवादी गतिविधियों का फायदा उठा धार्मिक कठ्ठरपंथी अपनी बातों जरिए एक-दूसरे के पर आरोप लगाते हैं जिसके कारण हिंसा या विवादों का बढ़ना स्वाभाविक हैं। 2008 में हुए कंधमाल दंगे में भी 20 से ज्यादा लोग मारे गए जबकि 1200 से अधिक लोग विस्थापित हुए।
उपरोक्त विचार मेरे पिछले कुछ वर्षों का अनुभव और अध्ययन हैं। इस लेख का आधार पुस्तक मुस्लिम मन का आईना- आशुतोष वार्ष्णेंय और पुस्तक हिन्दू मुस्लिम रिश्ते- राजमोहन गांधी हैं।


बुधवार, 28 मई 2014

शिक्षा के अधिकार से लाभ कम, हानि ज्यादा

 सिविल लाइन के एक बस स्टैंड पर कांग्रेस का चुनावी प्रचार

 शिक्षा के अधिकार को 2009 में अमलीजामा पहनाया गया। सरकार की शिक्षा सम्बन्धी नीतियां, कानून और कार्यक्रम असफल रहें हैं। शिक्षा के अधिकार को सरकार नें अनुच्छेद 21-क के अंर्तगत 6-14 वर्ष के बच्चें कों मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देने का कानून बनाया। लेकिन यह नीति पूर्ण रूप से फैल रही हैं। 14 वर्ष के बच्चें दुकानों पर मजदूरी करते हुए नजर आते हैं। सिग्नल पर भीख मांगते हुए नजर आते हैं। निशुल्क शिक्षा सिर्फ सरकारी विद्यालय में मिलती हैं जबकि निजी विद्यालय में यह सिर्फ 25% गरीब बच्चों के लिए सीटें आरक्षित की जाती हैं। इनके उपरी खर्चें छात्र के परिवार को करने पढ़ते हैं जैसे, कॉपी, किताब, वर्दी, जूते आदि। सरकारी विद्यालय में उचित रूप से पढ़ाई न होने के कारण भी गरीब व्यक्ति अपने बच्चे को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं।  क्या करे मजबूरी हैं न कोई गरीब अपने बच्चों को अपनी तरह अभाव की स्थिती में नही देखना चाहता है। बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए मेहनत कर अपनी सारी आमदनी खर्च करता है।
      सरकार 6-14 वर्ष तक के बच्चों की निशुल्क शिक्षा की बात करती हैं लेकिन 6 वर्ष से कम उम्र और 14 वर्ष से अधिक बच्चों का क्या ? प्राइवेट स्कूलों में नर्सरी में दाखिले के लिए माता-पिता बच्चें की तीन वर्ष की उम्र से भागदौड़ करते हैं और प्राइवेट स्कूलों की मनमानी का शिकार होते हैं। सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद भी प्राइवेट स्कूलों की नर्सरी में दाखिला की बेइमानी हो रही हैं। दाखिला के नाम पर डोनेशन की प्रथा बना दी गई हैं। 14 वर्ष की उम्र मे बच्चा 9वीं या 10वीं कक्षा तक होता है लेकिन क्या उसके बाद कोई खर्च नही होता ? जबकि विद्यार्थीयों को 11वी कक्षा से लेकर भी जहां तक वह पढ़ते हैं उसका खर्च किसी अभिभावक से वहन नही होता है। आज देश में 12वीं पास करने के बाद विश्वविद्यालय से पूरी तरह से मूंह मोड़ लेते हैं। कुछ लोग स्नातक करते हुए पार्ट टाइम काम करते हैं। जिससे उनका पढ़ाई से ध्यान भटकता है।
शिक्षा के अधिकार में शिक्षक छात्र अनुपात को 40 छात्रों को एक अध्यापक पढ़ाएगा लेकिन सरकारी विद्यालयों में आज भी 60 से अधिक छात्र होते हैं, ऐसे में शिक्षा की क्या परिस्थितियां होगी? कई विद्यालयों में आवश्यकतानुसार शिक्षक भी नही हैं। मीड डे मील के बारें मे हम सभी बखूबी जानते हैं कि स्कूलों में दोपहर में मिलने वाले भोजन की गुणवत्ता कैसी थी। भोजन में कीड़े, छिपकलियां, जैसे जीव पायें गये। बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश आदि  राज्यों में स्कूलों की लापरवाही के कारण बहुत से बच्चे बीमार हुए।
      नो फेल पॉलिसी के तहत सरकार ने पहली से आठवीं कक्षा तक के छात्रों कों ऐसे ही पास करने की नीति बनायी हैं। जिससे की अब आठवीं तक कोई भी छात्र फेल नही होगा। हालांकि नो फेल पॉलिसी का क्रियान्वन छात्रों की पढ़ाई को बेहतर करने के लिए ही किया गया ताकि छात्र पास-फेल के लिए न पढ़े, सीखने के लिए पढ़े लेकिन शिक्षकों ने उनका साथ नही दिया और कक्षा में पढ़ाई को लेकर कोई दिलचस्पी नही दिखाया। इससे आठवीं तक तो सभी पास हो जाते लेकिन  कुछ आता नही हैं। 5वीं कक्षा के 53.5 प्रतिशत बच्चे ही दूसरी कक्षा की किताब पढ़ पाते हैं।
कुल मिलाकर भारतीय शिक्षा की नींव ही कमजोर गई है जिसके फल भी रोगयुक्त हो रहे हैं। आज बच्चे पास तो हो जाते है लेकिन पढ़ने  में असफल हो रहे हैं। और इसका मुख्य कारण यह भी है की लोग पास होने के लिए पढ़ना चाहते है सीखने के लिए नही। 

शनिवार, 11 जनवरी 2014

विद्या ददाति विनयम् विनयाद्याति पात्रताम्
पात्रत्वाद धनमाप्नोति धनाद धर्म तत: सुखम्।।
शिक्षा से हमें विनय मिलता है,विनय से हमें पात्रता मिलती है और पात्रता अनुरूप हमें धन प्राप्त होता है। धन से हमें धर्म की अनुभूति होती है और धर्म हमें सुख प्रदान करता है। शिक्षा के सिद्धांत के विषय में स्वामी विवेकानन्द ने मानव निर्माण,आत्मन्,बौद्धिक क्षमता का सही उपयोग,नैतिक शिक्षा की जो बात कही वह शिक्षा आज केवल डिग्री और दर्जा बढ़ा रही है लेकिन नैतिकता और सभ्यता का ह्रास हो रहा है।जिन शिक्षकों को राष्ट्र-निर्माण करने वाला इंजीनियर माना जाता है, आज वह शिक्षक कम काम करने और छह घंटे की नौकरी के लिए है।कोई बच्चा पढ़े या न पढ़े उनसे कोई मतलब नही है,बस सरकारी नीतियों पर आँख बंद कर अमल कर रहे  है।सरकार भी शिक्षा व्यवस्था को सुधारने का काम कर रही है, प्राइमरी स्कूल में दाखिले के माध्यम से,नो फेल पॉलिसी(पहली से आठवीं कक्षा तक किसी भी विद्धार्थीं को फेल नही किया जाएगा) के माध्यम से, मिड डे मील के माध्यम से,ग्रेडिंग सिस्टम व सौ प्रतिशत कट ऑफ निकालने के माध्यम से लेकिन क्या शिक्षा व्यवस्था मे सुधार हुआ? नही। सरकार की विभिन्न योजनाएं असफल रही,क्योंकि न तो मिड डे मील उचित रूप में काम कर पाया और न ही नो फेल पॉलिसी व सौ प्रतिशत कट ऑफ।इन सब के कारण बच्चों के माता-पिता के साथ-साथ युवाओं में भी असंतोष और निराशा पैदा हुआ है। शिक्षा के गिरते स्तर के कारण डिग्री तो आसानी से मिल जाती है लेकिन जब नौकरी की बात आती है तो यह कह कर रद्द कर दिया जाता है कि आपकी योग्यता तो है लेकिन पात्रता नही है। वही दूसरी ओर सरकार युवाओं के रोजगार के नए-ऩए अवसर प्रदान करने की सूचनाएँ जनहित में जारी करती है लेकिन रोजगार के अवसर सिर्फ सूचनाओं तक सीमित रहती है।
हम सभी जानते है कि भारत में आज लगभग ७८ % युवाओं का देश है। स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिवस पर राष्ट्रिय युवा दिवस मनाया जाता है। लेकिन युवाओं का यह देश शैक्षिक,समाजिक व सास्कृतिक रूप से पिछड़ रहा है। इसका मुख्य कारण भारतीय राजनीति पूर्ण रूप से जिम्मेदार है, राजनीति के कारण शिक्षा और विकास के मायने बदल गए। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि भारतीय राजनीति तभी सफल हो सकती है जब सुशिक्षा,भोजन और रहने की अच्छी सुविधाएं होगी। देशभक्ति और राष्ट्रवाद की जो मुहिम स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं के लिए चलाई आज वह क्रिकेट के मैच में ही दिखाई देता है या फिर राजनीतिक दलों के उकसावे में आकर आम लोग की भावनाओं में नज़र आता है।
स्वामी विवेकानन्द ने भारत की जिस सांस्कृतिक परम्परा का विचार और उसका विस्तार विश्व भर में फैलाया आज वही भारत अपनी संस्कृति और सभ्यता को भूलकर पश्चिमी सभ्यता को अपने पर हावी कर रहा है।खाना-पीना,पहनावा,संगीत,सिनेमा आदि पश्चिमी जगत के अनुरूप अपनाने लगे।जिसका विरोध स्वयं गांधी जी भी करते थे लेकिन आज गांधी को मानने वाले स्वदेशी छोड़ विदेशी अपनाने लगे।जिस जातिरहित व वर्गविहीन समाज का सपना स्वामी विवेकानन्द जी ने देखा वह आज पंगु नज़र आती है,जब खाप किसी जाति आधारित किसी गैर-सरकारी गतिविधियों को अंजाम देता है। और सरकार भी इसमें हस्तक्षेप करने से कतराती है।
पुस्तक बाजार औक पुस्तक की दुकानों पर स्वामी विवेकानन्द के पोस्टर आसानी से मिल जाती है।जिस पर उनके विचार या दर्शन की एक दो पंक्तिया लिखी रहती है,जोकि की विद्यार्थी स्वप्रोत्साहन के लिए खरीदते है। एक पोस्टर पंक्तिया उद्धत करता हूँ:-सब शक्ति तुम में है,तुम कुछ भी और सबकुछ कर सकते हो,इसमें विश्वास करो, यह मत सोचो की तुम कमजोर हो,खड़े हो और बताओं तुम में क्षमता या ईश्वरिय है।अन्तत: स्वामी विवेकानन्द ने देश के विकास के लिए शिक्षा और युवाओं को मुख्य भूमिका में बताया लेकिन क्या आज भारतीय शिक्षा और युवा देश के विकास मे योगदान दे रहे हैक्या भारतीय राजनीति आम लोगों तक अच्छी शिक्षा,अच्छा भोजन और रहने को घर दे रही है?

स्वामी विवेकानन्द जी की एक सौ पचासवीं जयंती की शुभकामनाएँ।

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

न्यायिक जाँच में बिलम्ब क्यों????







दिल्ली विश्वविधालय के अम्बेडकर कॉलेज की लैब असिसटेंट पवित्रा भारव्दाज ने मानसिक व यौन शोषण का आरोप कॉलेज के प्रधानाचार्य और कुछ स्टाफ कर्मचारियों पर लगाया,जिस कारण उसे बर्खास्त कर दिया गया। शोषण व बर्खास्तगी का विरोध करते हुए वह दिल्ली विश्वविधालय के कुलपति-कार्यालय भी गई लेकिन कहीं भी सुनवाई नही हुईं।
30सितम्बर को वह(पवित्रा) दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से मिलने गईं लेकिन शीला दीक्षित ने मिलने से मना कर दिया, जिसके कारण पवित्रा ने दिल्ली सचिवालय के सामने आत्मदाह कर लिया जिसमें अस्सी प्रतिशत जली और कुछ दिन चलें उपचार के दौरान अस्पताल में ही उनकी मृत्यु हो गईं।
हाँलाकि डीयू प्रशासन ने अब अम्बेडकर कोलेज के प्रधानाचार्य व मुख्य आरोपी जीo केo अरोड़ा को सस्पेंड तो कर दिया लेकिन दिल्ली पुलिस और दिल्ली सरकार नें कार्यवाही करने में दिलचस्पी व निष्पक्षता नही दिखाई जबकि मरने से पहले उन्होनें प्रधानाचार्य व अन्य कर्मचारियों के खिलाफ बय़ान दिया।
दिल्ली पुलिस इस बय़ान को पुख्ता सबूत नही मान रही जबकि गीतिका केस में गोपाल कांडा को तुरंत गिरफ्तार कर लिया था,क्योंकि गीतिका ने सुसाइड नोट पर आत्महत्या का कारण गोपाल कांडा को बताया था।इस केस में मृतका नें मरने से पूर्व पुलिस को बय़ान दिया हैं,लेकिन आरोपी के खिलाफ पुलिस कार्यवाही क्यों नही कर रही?क्या आरेपी की पहुँच केन्द्र सरकार तक हैं? दो दिन पहले विश्वविधालय गवर्निंग बॉडी ने अरोड़ा को सस्पेंड किया लेकिन वह अब भी विश्वविधालय में जा प्रशासनिक काम कर रहे हैं।यह कैसा सस्पेंशन हैं?
प्रशासनिक और कानूनी कार्यवाही तो पता नही कब तक अपना काम निष्पक्ष होकर करेगी?लेकिन उन नारीवादी संगठनों का क्या जो आज से दस महीने पहले जंतर-मंतर,इंडिया गेट, संसद की गलियों में निर्भया को न्याय और महिला सशक्तिकरण के लिए माँग कर रही थी,तमाम मीडिया चैनल दिन-रात का कवरेज दे रहे थे,जेएनयू व दिल्ली विश्वविधालय के छात्रों का हुज़ूम अपने अपने कैम्पस से इंडीया गेट तक न्याय की माँग कर रहे थे।कहाँ गये यें लोग? शायद मीडिया चुनावों की दौड़ में अपने आँकड़े सही साबित करने और टीआरपी को बढ़ाने में लगे हैं और विश्वविधालय के छात्र अपनी परिक्षा की तैयारी में।तभी किसी को पवित्रा के साथ होने मानसिक व यौन शोषण और आत्महत्या दिखाई नही देता।लेकिन पवित्रा से जुड़े लोग कालेज के प्रोफेसर और कुछ विद्यार्थीं ही पवित्रा को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.सोच कर देखिये कोई भी व्यक्ति झूठ के लिए आत्मदाह करेगा क्या?