बुधवार, 28 मई 2014

शिक्षा के अधिकार से लाभ कम, हानि ज्यादा

 सिविल लाइन के एक बस स्टैंड पर कांग्रेस का चुनावी प्रचार

 शिक्षा के अधिकार को 2009 में अमलीजामा पहनाया गया। सरकार की शिक्षा सम्बन्धी नीतियां, कानून और कार्यक्रम असफल रहें हैं। शिक्षा के अधिकार को सरकार नें अनुच्छेद 21-क के अंर्तगत 6-14 वर्ष के बच्चें कों मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देने का कानून बनाया। लेकिन यह नीति पूर्ण रूप से फैल रही हैं। 14 वर्ष के बच्चें दुकानों पर मजदूरी करते हुए नजर आते हैं। सिग्नल पर भीख मांगते हुए नजर आते हैं। निशुल्क शिक्षा सिर्फ सरकारी विद्यालय में मिलती हैं जबकि निजी विद्यालय में यह सिर्फ 25% गरीब बच्चों के लिए सीटें आरक्षित की जाती हैं। इनके उपरी खर्चें छात्र के परिवार को करने पढ़ते हैं जैसे, कॉपी, किताब, वर्दी, जूते आदि। सरकारी विद्यालय में उचित रूप से पढ़ाई न होने के कारण भी गरीब व्यक्ति अपने बच्चे को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं।  क्या करे मजबूरी हैं न कोई गरीब अपने बच्चों को अपनी तरह अभाव की स्थिती में नही देखना चाहता है। बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए मेहनत कर अपनी सारी आमदनी खर्च करता है।
      सरकार 6-14 वर्ष तक के बच्चों की निशुल्क शिक्षा की बात करती हैं लेकिन 6 वर्ष से कम उम्र और 14 वर्ष से अधिक बच्चों का क्या ? प्राइवेट स्कूलों में नर्सरी में दाखिले के लिए माता-पिता बच्चें की तीन वर्ष की उम्र से भागदौड़ करते हैं और प्राइवेट स्कूलों की मनमानी का शिकार होते हैं। सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद भी प्राइवेट स्कूलों की नर्सरी में दाखिला की बेइमानी हो रही हैं। दाखिला के नाम पर डोनेशन की प्रथा बना दी गई हैं। 14 वर्ष की उम्र मे बच्चा 9वीं या 10वीं कक्षा तक होता है लेकिन क्या उसके बाद कोई खर्च नही होता ? जबकि विद्यार्थीयों को 11वी कक्षा से लेकर भी जहां तक वह पढ़ते हैं उसका खर्च किसी अभिभावक से वहन नही होता है। आज देश में 12वीं पास करने के बाद विश्वविद्यालय से पूरी तरह से मूंह मोड़ लेते हैं। कुछ लोग स्नातक करते हुए पार्ट टाइम काम करते हैं। जिससे उनका पढ़ाई से ध्यान भटकता है।
शिक्षा के अधिकार में शिक्षक छात्र अनुपात को 40 छात्रों को एक अध्यापक पढ़ाएगा लेकिन सरकारी विद्यालयों में आज भी 60 से अधिक छात्र होते हैं, ऐसे में शिक्षा की क्या परिस्थितियां होगी? कई विद्यालयों में आवश्यकतानुसार शिक्षक भी नही हैं। मीड डे मील के बारें मे हम सभी बखूबी जानते हैं कि स्कूलों में दोपहर में मिलने वाले भोजन की गुणवत्ता कैसी थी। भोजन में कीड़े, छिपकलियां, जैसे जीव पायें गये। बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश आदि  राज्यों में स्कूलों की लापरवाही के कारण बहुत से बच्चे बीमार हुए।
      नो फेल पॉलिसी के तहत सरकार ने पहली से आठवीं कक्षा तक के छात्रों कों ऐसे ही पास करने की नीति बनायी हैं। जिससे की अब आठवीं तक कोई भी छात्र फेल नही होगा। हालांकि नो फेल पॉलिसी का क्रियान्वन छात्रों की पढ़ाई को बेहतर करने के लिए ही किया गया ताकि छात्र पास-फेल के लिए न पढ़े, सीखने के लिए पढ़े लेकिन शिक्षकों ने उनका साथ नही दिया और कक्षा में पढ़ाई को लेकर कोई दिलचस्पी नही दिखाया। इससे आठवीं तक तो सभी पास हो जाते लेकिन  कुछ आता नही हैं। 5वीं कक्षा के 53.5 प्रतिशत बच्चे ही दूसरी कक्षा की किताब पढ़ पाते हैं।
कुल मिलाकर भारतीय शिक्षा की नींव ही कमजोर गई है जिसके फल भी रोगयुक्त हो रहे हैं। आज बच्चे पास तो हो जाते है लेकिन पढ़ने  में असफल हो रहे हैं। और इसका मुख्य कारण यह भी है की लोग पास होने के लिए पढ़ना चाहते है सीखने के लिए नही।