मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

धर्म और राजनीति

जिस देश में अनेक धर्म और सम्प्रदाय हो, वहां उनके बीच टकराव/मतभेद होना कोई आश्चर्य की बात नही है। परन्तु ऐसा भी नही है कि एक धर्म वाले देशों में विवाद उत्पन्न नही होता। एक धर्म वाले देशों में भी टकराव होना भी कोई नई बात नहीं है। पाकिस्तान में शिया-सुन्नी और अहमदिया, आयरलैंड में कैथोलिक और प्रोंटेस्टो के मध्य,  ईरान-इराक का भी शिया-सुन्नी के मध्य टकराव व विवाद होते ही रहते हैं। अगर भारत जैसे बहुधर्मी देश में समुदाय के मध्य टकराव होता तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नही हैं। भारत में कई धर्म है,लेकिन टकराव हिन्दू- मुस्लिम के बीच ही होता है। मुस्लिम-हिन्दू के बीच यह टकराव मुगल काल में शोषण और कर(टैक्स) के कारण हुआ। परन्तु ब्रिटिश भारत की फूड डालो और राज करो की नीति ने इन टकरावों को ओर भी निर्दयी बना दिया। 

भारतीय परिषद् 1909 के अधिनियम (मार्ले-मिन्टो सुधार अधिनियम) हिंदू-मुस्लिम वोट बैंक विभाजन की राजनीति थी। हिंदू-मुस्लिम संगठन एक जुट होने के बजाय आपस में ही टकराव करने लगे। कांग्रेस एक राष्ट्रवादी पार्टी बनी जबकि भाजपा एक हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी हैं। राम जन्म भूमि या बाबरी मस्जिद विध्वंस के समर्थन में भाजपा और कांग्रेस अपने को सही साबित करते हैं। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के कारण ही 1992-93 में मुंबई मे दंगे हुए जिसमें 900 लोग मारे गए। लगभग सभी राजनीतिक दलों पर एक सामान्य आरोप है कि प्रतिद्वंदी दलों को हराने के लिए वोट बैंक की राजनीति का खेलते हैं। जिसका अर्थ एक खास समुदाय के लोगो का वोट पाने का एकमात्र उद्देश्य है। इसलिए किसी भी मुद्दों को राजनैतिक समर्थन देते हैं। शाहबानो मामले में जहां कांग्रेस को समर्थक माना गया वही गोधरा कांड में भाजपा को दंगा करवाने में लिप्त माना जाता है। कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिसे सरकार सदैव के लिए बनाए रखना चाहती हैं ताकि धार्मिक राजनीति को बनाए रखे और लोगो के बीच दूरियां बना अपनी नजदीकियों को कायम रख सकें।

आज भारत में कई धार्मिक संगठन हैं। ऐसे कई धार्मिक संगठन भी है जो किसी नकिसी राजनीतिक दलों से जुड़ा हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, श्री राम सेना, बजरंग दल,जमात-ए-इस्लामी,जमात-ए-उलेमा आदि राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक धार्मिक संगठन हैं। इनके अलावा क्षेत्रीय स्तर पर भी कई धार्मिक राजनीतिक संगठन हैं। भारतीय राजनीति में अपने दल के समर्थन तथा अपने दलों में शामिल होने के लिए नए-नए हथकंडे अपनाते हैं। लेकिन अफसोस उस समय होता जब नसमझ लोगों के साथ-साथ एक पढ़ा-लिखा और समझदार तबका भी इस धार्मिक राजनीति में फंस जाते है। समाजिक हित के बजाय स्वहित तथा धर्महित की राह पर चलते हैं जोकि स्वार्थ से भी बढ़कर हैं। जिससे गैर धार्मिक व्यक्ति या समुदाय के मध्य टकराव उत्पन्न हो जाते हैं। और यें टकराव कई बार राजनीतिक व सामाजिक हिंसा या दंगों के रूप में उभर कर सामने आता हैं जिसमें का आम नगरिक ही शिकार होते हैं।

साम्प्रदायिक टकराव से समय-समय पर भारत ग्रस्त हुआ है। भारत तथा पाकिस्तान का धर्म के आधार पर बंटवारा हुआ जिसके कारण लाखों अल्पसंख्यकों ने पलायन किया। पलायन के साथ-साथ लोगों के बीच दंगे भी हुए। यह संघर्ष हिंदू राष्ट्रवाद बनाम इस्लामी कट्टरवाद और इस्लामवाद की होड़ की विचारधारा से उपजा हैं। ये विचार हिंदू और मुस्लिम समुदाय के कुछ भागों  में प्रचलित है। विभाजन के कारण 80 लाख लोगों को अपना घर छोड़कर सीमा पार जाना पड़ा तथा विभाजन की हिंसा में तकरीबन 5-10 लाख लोगों ने जान गंवाई। स्वतंत्रता के बाद भी कई बड़े साम्प्रदायिक संघर्ष हुए। 1984 के सिख विरोधी दंगे जिसके अंतर्गत भारतीय सेना भिंडरावाला के खिलाफ हरमिंदर साहिब गुरूद्वारा में घुसकर गोलीबारी की। इसके विरोध में 31 अक्टूबर 1984  को इंदिरा गांधी की दो सिखों ने हत्या कर दी गई, जिसका भुगतान लगभग 3000 सिखों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ा। अन्य घटनाओं में अयोध्या विवाद के रूप में बाबरी मस्जिद विध्वंस। जिसके फैसले में लिब्राहम आयोग ने भाजपा के सभी वरिष्ठ नेता तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगाया है। 2002 के गोधरा कांड से  पनपने वाला गुजरात दंगे जिसमें 1044 लोग मारे गए। मरने वालों में अधिकत्तर मुसलमान थे। हालांकि दोनो ही सम्प्रदाय के लोग दंगे का शिकार हुए थे।
कभी-कभी आतंकवादी गतिविधियों को भी साम्प्रदायिक दंगो का नाम भी दिया जाता हैं। जिससे साम्प्रदायिक दंगो को बढ़ाने में सहायता मिलती हैं। आतंकवादी गतिविधियां तथा साम्प्रदायिक दंगो में गहरा सम्बन्ध देखने को मिलता हैं क्योंकि कोई आतंकवादी गतिविधियां उस समय सक्रिय होती हैं जब दो समुदाय के मध्य टकराव उत्पन्न होने लगता हैं। अगर हम इसके विपरीत देखे तो आतंकवादी गतिविधियों का फायदा उठा धार्मिक कठ्ठरपंथी अपनी बातों जरिए एक-दूसरे के पर आरोप लगाते हैं जिसके कारण हिंसा या विवादों का बढ़ना स्वाभाविक हैं। 2008 में हुए कंधमाल दंगे में भी 20 से ज्यादा लोग मारे गए जबकि 1200 से अधिक लोग विस्थापित हुए।
उपरोक्त विचार मेरे पिछले कुछ वर्षों का अनुभव और अध्ययन हैं। इस लेख का आधार पुस्तक मुस्लिम मन का आईना- आशुतोष वार्ष्णेंय और पुस्तक हिन्दू मुस्लिम रिश्ते- राजमोहन गांधी हैं।